सोमवार, 5 अप्रैल 2010

"शहीद की मंजिल"

हम चले थे साथ मंजिल पाने के लिए,
राह लम्बी थी हमारी, रास्ता भी कठिन
लेकिन दिल में थी आशा, होठों पे मुस्कान,
दर्द न था परेशानियों का, दुःख भी भूल गए।
मन में थी लगन, इच्छा थी कुछ कर दिखाने की।
मंजिल के करीब आने की ख़ुशी थी सबको,
पर मेरे मन में थी आशंका, कोई छूट न जाये।
दर्द न था कठिनाइयों का मन में लेकिन
भय था सबके लिए की कोई बिछड़ ना जाये,
पर था अडिग मैं राह की चुनौतियों के लिए,
लाख आये क्यों न मुसीबतें, झेलूँगा अकेले।
घिरने ना दूंगा किसी को कष्ट के भंवर में,
आखिर हैं तो अपने ही, चले भी थे साथ ही,
मंजिल भी एक है, रास्ता भी एक है।
कठिनाइयाँ थी मुह बाये खड़े, खाने को तत्पर,
पर मैं था दृढ झेलने को सबको।
कुछ तो निकल गए, अपना रास्ता बना के,
कुछ को निकाला मैंने, रास्ता बता के,
सब निकल गए आगे मंजिल पर,
मैं था पीछे मुसीबतों से ढक कर।
मुझे गम नहीं की आगे निकल गए सब,
पर एक भय है कि क्या उनको मंजिल मिलेगी?
क्या वे पार कर पाएंगे, रास्ते के अंधियारों को?
क्या फिर वे रास्ता निकालेंगे? कि
फिर उनको कोई "मैं" मिलेगा रास्ता सुझाने को।

(डेढ़ दशक पहले के भाव) जारी है.............

जय हिंद!

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