रविवार, 22 फ़रवरी 2009

"गाँव को क्यों भुला दिया"

देश की ७० फीसदी से ज्यादा जनता गाँव में रहती है और कृषि पर निर्भर है। इसके बावजूद न तो सरकार को इसकी चिंता और ना ही देश के उस उस एलीट(संभ्रांत) वर्ग को जो कहीं न कहीं गाँव से जुडा है। यहाँ तक की ये वर्ग अपने गाँव से अपनी जड़ों को काट चुका है। मैं जब भी किसी से मिलता हूँ तो मेरा सबसे पहला सवाल होता है आप कहाँ के रहने वाले हो, आपका गाँव कहाँ है (शायद ये मेरी एक कमजोरी है। इस पर कुछ लोगों का कमेन्ट होता है की मुझे तो जनगणना अधिकारी होना चाहिए।) मैंने देखा है लोग अपने आपको किसी गाँव से होने का बताने में शरमाते हैं। दिल्ली जैसे शहर में मिलने पर तो वो अपने आपको दिल्लीवाला ही बताते हैं। मैं इतिहास का छात्र रहा हूँ इस नाते जानता हूँ कि दिल्ली एक बसाया हुआ शहर है, यहाँ लोग रोजगार के लिए आते रहे और शहर का विस्तार होता गया। आज के हर छोटे-बड़े शहर का यही हाल है। यहाँ काम (मजदूरी) के लिए आने वाले लोग गाँव से ही आते हैं। गाँव में काम करने में इन्हें शर्म आती है लेकिन यहाँ पर नारकीय जीवन जीते हुए अन्याय, अत्याचार मंजूर है।

गलती इनकी भी नहीं है। सरकार अगर इन्हें गाँव में ही रोजगार मुहैया करा दे तो शायद इन्हें शहर का मुह न देखना पड़े। अगर सरकार कृषि पर और किसानों पर ध्यान दे दे तो शायद देश की बहुत बड़ी और कई समस्यायें जड़ से ख़त्म हो जाएंगी। और देश की ७० फीसदी आबादी जब तक खुशहाल नहीं होगी तब तक वास्तविक मायने में देश विकास नहीं कर पायेगा। बहुत ज्यादा दिन तक इनकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती है।

अगर गाँव में कुछ मूलभूत सुविधाए मुहैया करा दी जाय, जैसे-सड़क, बिजली, शिक्षा, हॉस्पिटल, पानी(सिंचाई), तो शायद एक बहुत बड़ा तबका शहर की तरफ़ पलायन करना छोड़ दे। और ये पलायन रुक जाय तो शायद शहर को भी बहुत सारी समस्याओ से मुक्ति मिल जायेगी। शहर से शायद वो स्लम एरिया ख़त्म हो जाए, जिसके कारण एक विदेशी को स्लमडॉग मिलेनियर फिल्म बनाने की जरूरत पड़ गई। शायद फिर कोई इन्हें डॉग के रूप में सम्मानित न करे। अपने घर से दूर रहने की टीस जो मन में होती है शायद वो भी ख़त्म हो जाए।

अब बात उनकी जो कहीं ना कहीं गाँव से जुड़े हुए हैं। ये अब कहने भर को गाँव से जुड़े हुए हैं। अगर किसी खास सम्बन्धी के यहाँ शादी पड़ जाय(वैसे अब लोग शादी भी शहर से ही कर रहे हैं) तो शायद सम्बन्ध निभाने के नाम पर शादी वाले दिन गाँव पहुँच जाय तो बड़ी बात है। ऐसे लोगों ने अपने विकास(पढ़ाई, नौकरी) के लिए उर्जा, खाद, पानी तो गाँव से ली, लेकिन जब उन्हें गाँव को कुछ देने, करने की बारी आई तो वो गाँव छोड़कर ही फरार हो गए। पूछो तो कहेंगे गाँव में बड़ी राजनीति है। अरे भाई वो गाँव तो आपका ही है ना। राजनीति तो आपके देश में भी बहुत हो रही है तो क्या आप अपने देश को छोड़ देंगे। जब देश नहीं छोड़ सकते तो गाँव क्यों?

गाँव से निकले ये लोग आज बाहर अच्छे पदों पर हैं, निर्णायक जगहों पर हैं। लेकिन उनके ज्ञान और शक्ति (पॉवर, पैसा)
का कोई फायदा गाँव को नहीं मिल पा रहा है, इसलिए गाँव अभी भी पिछडा हुआ है। गाँव में अभी भी शिक्षा का बहुत अभाव है जिसके कारण लोग सरकार की उन नीतियों का फायदा नहीं उठा पाते जो उनके लिए बनाई गई हैं। गाँव में भी विकास की योजनाए राजनीति का शिकार हो जाती हैं। लोग अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए गाँव के विकास को रोकने का काम करते हैं। और ये सब होता है केवल शिक्षा और समझ के अभाव में, जिसे दूर कर सकता है हमारा वो तबका जो शिक्षित और समर्थ है।

जय हिंद!


2 टिप्‍पणियां:

  1. sahi kahan apne par jyadatar log shruwat karne mein yakeen nahin karte aur kuch sochte hai ki pehle apne liye kuch karle phir desh ki sochenge aur aisa karne mein unki puri umr nikal jati hai. actually hamare yahan aisi parampara nahin hai agar aap kisi ki madad karne jao to log sochna shuru kar dete hai is madad se use kya fayda hoga kyun koi bina kisi matlab ke kisi ki help karega. ye trend nahin hai isiliye log sirf apne baare mein sochte hai aur apne liye karte hai. hamein koi aisa chahiye jo practical hokar aaj ki situation ke hisab se solution dhundhne honge jo logon ki samajh mein bhi aaye aur unke liye mumkin bhi ho.

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  2. Aapke vicharon ki mai bahut kadra karta hun,gaon aur shahar ke beech ki doori ko kam karna bahut hi zaroori hota ja raha hai.Par Dilli ko bhi itna gair samajhana achha nahin.Agar hum Banares aur Allahabad ko apna bana sakte hain,to Delhi ko kyon nahin? Akhir ab DILLI bahut door nahin hai.....

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