शनिवार, 1 मई 2010

दर्द.......

दुनिया ने दुःख दिए, जीने कि अब चाह नहीं है,
क्या करूँ अब ज़िन्दगी में, ज़ीने की कोई राह नहीं है।
अपनत्व को मैं खोजता रहा, मतलबी दुनिया के घनेरे में,
प्यार कभी मैं पा न सका, ज़िन्दगी के अँधेरे में।

अपनों को अपने में, खोजता ही रह गया,
ज़िन्दगी को सपनों में, ढूंढता ही रह गया।
अब तक मैं दूसरों का, था संबल बना रहा,
ज़रूरत पड़ी तो मेरा ही कोई न रहा।

सहारे को सहारे की, ज़रूरत अब पड़ गई,
ज़िन्दगी अब ज़िन्दगी की, चेरी बनकर रह गई।
सोचते थे दुनिया में, प्यार ही प्यार है,
लेकिन यहाँ पर तो, विष का ही भरमार है।

ज़िन्दगी में अब ज़ीने की, राह नहीं दिखती है,
नज़र उठा के देखो तो, अँधेरा ही अँधेरा है।

कोई तो होगा अपना, जो रास्ता दिखायेगा,
क्या सही-क्या गलत, पहचान तो बताएगा।
ज़िन्दगी की मशाल हाथ में दे, राह जो सुझाएगा,
ज़िन्दगी में अपनों की, पहचान तो बताएगा।

आज तक हम लोगों को, रास्ता दिखाते थे,
उनके दुखों को बाँट के, उनके हमराही बन जाते थे।
आज तो हम खुद दूसरों से, अनजाने हो गए,
अब तो अपने ही हमसे, बेगाने जैसे हो गए।

जिनके सामने आसमां भी झुक जाता था, आज वो खुद झुक गया,
अपनों के हाथों उसका, अपना इंतकाल हो गया।
दुनिया से नहीं, गिला है उनके दिखावों से,
नफरत है उनके छद्म रूप, और उनके छलावों से।
अपनत्व दिखाकर, प्यार का गला घोंटते हैं,
अपनों को अपने से ही, दूर किया करते हैं।

दुनिया ने तोड़कर हमें, चूर-चूर कर दिया,
ज़िन्दगी और प्यार को, आँखों से दूर कर दिया।
दुनिया को मोह नहीं, डूबते सितारों से,
प्यार नहीं एक से, दिखावा हजारों से।

अपनों की जुबां से निकला एक लफ्ज़, अमृत सदृश्य हो जाता है,
प्यार के दो बोल, गैरों को भी अपना बनाता है।
कोई तो होगा अपना, जिसके कंधे पर सर रखकर,
अपने को सुरक्षित, महसूस कर सकें।

कोई तो बनेगा अपना, चाहे बेगाना ही सही,
प्यार देगा अपनों का, चाहे अनजाना ही सही।
अपनों के भेष में, दुश्मन छिपे रहते हैं,
यार वही नेक हैं, जो अंधकार दूर किया करते हैं।

शमा के जलने पर, परवाने नज़र आते हैं,
दुखों के आने पर, अपने याद आते हैं।

(डेढ़ दशक पहले के भाव) जारी है.........

जय हिंद!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें